किताबों के कई वरक अब मुड़ चुके थे..
हम भी अब पच्चास पार कर चुके थे..
तन्हाई दिन भर बुकसेल्फ़ टटोलती...
यहीं कहीं पर थी, एक वो किताब..
जिसका पन्ना तुमने मोड़ा था..
खुदको मेरे लिए रख छोड़ा था..
कांपते हाथ, थिरकते पाँव हरकत में आये..
ऐनक टेबल पर, चाय की प्याली....और एक मुस्कान..
फिर पलके बंद..... गहरी सांस..... और ख्याल जा पहुचा..
मरीन ड्राइव के किनारे,
जहाँ तुम्हे.. रोज़ देखता था...
मुस्कुराते हुए... पास से दूर जाते हुए.....
सुबह की खुशबू में,
तुम्हारे पसीने की महक भी तो शामिल हुआ करती थी..
फिर लम्बी सांस और....... कदम बढ़ने लगे बूकसेल्फ़ की ओर..
बूढ़े हाथों में हर वो किताब थी..
जिनका पन्ना तुमने मोड़ा था...
दुनिया के लिए तुम ना सही..
लेकिन मेरे लिए..... खुद को रख छोड़ा था
"उन बुकमार्क की सलवटों पर"
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