Jan 8, 2011

'मोटी' आबादी, तंदुरुस्त सरकार

रवीश की रिपोर्ट देख रहा था. इस रिपोर्ट के दौरान दिल्ली की बैकवर्ड गलियों में मजदूर महिलाओं से मुलाक़ात हुई. धारा १४४ में जकड़ी गरीबी से रूबरू हुआ. दिन भर खपने वाली औरतों की दहाड़ी ५ रूपए से २० रूपए के बीच में थी. खेर यह सब बातें रवीश जी ने अपनी रिपोर्ट में ही दिखाई थी लेकिन मेरी सोच ने मुझे ग्लोबली सोचने के लिए मजबूर कर दिया. आउटसोर्सिंग में भारत का कोई मुकाबला नहीं कर सकता, दुबई, क़तर, मस्कट जैसे अरब देशो में भारतीय मजदूरों की बहुत डिमांड हैं. युके में भी हजारों भारतीय मजदूर दहाड़ी पर उपलब्ध हो जाएंगे. लेकिन इन सबका मूलभूत कारण कहीं बढ़ती हुई आबादी तो नहीं है. मेरी समझ में तो यही हैं. घर के लिए टेक्सी पकड़ते वक़्त जब किसी ड्राइवर से बात करता हूं तो ४-५ टेक्सी वाले पास आ जाते हैं. एक जन १०० कहता हैं तो दूसरा ८० में चलने को तैयार हो जाता हैं. मेरा मन कहता है जो ७० में रेडी होगा उसी की टेक्सी में बैठूँगा. अब इससे बड़ा कोई और उदहारण क्या दूं. आर्थशास्त्री तो हूं नही इसलिए सस्ते उदाहरणों से ही काम चलाना होगा. क्या करें माहोल ही ऐसा है. लेकिन नज़रे सिर्फ यही मंज़र देखती तो बात कुछ और थी. ज़ेहन में एक सवाल उठा कि चाय या पान की दुकानों पर लगे ब्लेक एंड व्हाईट टीवी सेट पर जब १०-१५ दहाड़ी मजदूर दिल बहलाने के लिए एक नज़र मार लेते होंगे  और उस दौरान जब आईपीएल की बोलियाँ लगती होंगी तो हिन्दुस्तान का ये तबका क्या सोचता होगा. इंटरेस्टिंग हैं, इलेक्ट्रोनिक मीडिया में होता तो वोक्स पोप ज़रूर लेता.
घोटालों की रकम सुनना तो जैसे ख्वाब देखने जैसा हो गया, शायद उससे भी परे. इस निबंध की डिमांड ही ऐसी हैं कि स्वीस बैंक में सरकार के नुमाइंदो की जमा रकम पर बात करना ज़रा हाई-फाई मामला हो जाएगा. वैसे मुझे लगता है आबादी का यह बड़ा तबका सरकार के किसी वोट बैंक का हिस्सा नही बनता हैं. अगर ऐसा होता तो सरकार इतनी तंदुरुस्त नहीं होती. इलेक्सन के दौरान कम वोटिंग के लिए इस तबके को दोष दिया जाता हैं लेकिन २० रूपए से लेकर २००-२५० की दहाड़ी पर मजदूरी पर काम करने वाला आदमी अगर वोट देने चला जाएगा तो जनाब चूल्हा कैसे जलेगा. हो सकता हैं मेरी यह बातें बकवास लगे लेकिन मेरा नज़रिया तो यही कहता है.

Jan 6, 2011

रिटायर्मेंट के बाद

टेबल से अखबार उठाकर
चाय की चुस्की लेते-लेते
घंटों निकल जाते हैं...

कोई इंतज़ार नहीं बचा अब,
ना कपड़ों को इस्त्री,
ना जूतों को पॉलिश..

लगता हैं जैसे ज़िंदगी
एक लम्बे सफ़र के बाद
चैन से सोफे पर बैठ गई हों..
मगर
दफ़्तर के ठहाकों
और घर के सन्नाटों में
फ़र्क बहुत हैं..

ख़ामोशी कभी
भाई साहब
तो कभी
सर कहकर बुलाती हैं..

तन्हाई जूते पहनकर
टहलने निकल जाती हैं
क्या पता था
रिटायर्मेंट के बाद
ज़िंदगी बदल जाती हैं..

Jan 2, 2011

वक़्त ने एक और पड़ाव तय कर लिया

नाप तौल कर दौड़ाने वाले वक़्त ने अपना एक और पड़ाव तय कर लिया लेकिन रुका नही. शायद कभी रुकेगा भी नहीं. कभी सोचता हूं की देने वाले ने चुटकी भर ज़िंदगी दी हैं. इस अदनी सी ज़िंदगी ने ढ़ेर सारे सपने सजा रखे हैं. ज़रूरते सवाल करती हैं कि क्या इतनी सी ज़िंदगी काफी हैं. दिल आँखे दिखाकर कहता हैं कि ज़रूरतों को मूंह मत लगाओ, वर्ना पछताओगे. साल २०१० शायद मेरी ज़िंदगी में अब तक का सबसे अहम साल था. शादी से पहले एक बिंदास पंछी था लेकिन शादी के बाद जिम्मेदारियों ने सबक सिखाना शुरू कर दिया. जिम्मेदारियों कहा कि तुमने अपनी ज़रूरतों पर ताला लगा दिया कोई बात नहीं मगर उनका क्या जिन्हें तुमसे उम्मीदें हैं. वैसे २८ पड़ाव पार करने के बात यह बात भी अच्छी तरह से सीख ली कि आसान कुछ भी नहीं हैं. वक़्त और ज़रूरतों के मुताबिक खुद को ढाल लेना ही ज़िंदगी हैं. कोई चीज़ अगर आसान है तो उसे आदत में मत उतारो और कोई चीज़ अगर मुश्किल है तो उससे घबराओ मत.

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