Dec 28, 2011

लोकपाल चाहिए क्या?

आपने अक्सर अपने रिश्तेदारों में या आजकल विज्ञापनों में भी मम्मियों को शिकायत करते हुए सुना या देखा होगा जिसमें वे अपने बच्चों की हरकतों से परेशान है, उसकी खाने-पीने की आदतों से परेशान है. ऐसी तमाम बातों से परेशान जिसमें बच्चा सुधारना नहीं चाहता और माँ शिकायतें करते हुए थकती नहीं. फिर किसी समझदार सहेली की सलाह के बाद बच्चे को किसी एक्सपर्ट के पास ले जाया जाता है, एक्सपर्ट बच्चे की आदतों को पढ़ता है और उसी के अनुसार उसके अभिभावकों को बरताव करने की सलाह देता है. इस पूरी प्रक्रिया के दौरान बच्चे को मनाने के लिए उसके अभिभावक ना जाने कितनी चीज़े लाकर दे देते हैं, लेकिन बच्चे को वो नही मिलता जो चाहिए.
एक दूसरा उदहारण देना चाहूँगा. मुझे संगीत का शौक है और शुरुआत में सीखने के दौरान मेरा मन विचलित हो जाता था. कभी मुझे लगता था कि शास्त्रीय संगीत सीखूं तो कभी मेरा दिल कोई साज सीखने के लिये मचलने लगा. परिणाम यह है कि मैं आज भी संगीत में कुछ नहीं कर पाया. पहले वाले उदहारण में परेशानी की वजह थी मूल कारण तक ना पहुच पाना और दुसरे उदहारण में असफलता की वजह किसी एक क्षेत्र में बिना पारंगत हुए दुसरे की चाह रखना.
इन दोनों उदाहरणों जैसा आलम अभी भारत का बना हुआ है. भ्रष्टाचार की लडाई में अन्ना और उनके समर्थक जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं. लोगों का भी उन्हें खूब समर्थन मिल रहा है. कुछ हद तक ये भी कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार से लड़ने का साधन जुटाने की जैसी भी कवायद हो रही है, वो अन्ना और उनके समर्थकों द्वारा बनाये गए माहौल का नतीजा है. इस मुहीम में देश की वो जनता भी शामिल है जिसे एक खेमा ऊर्जा, जोश, क्रांतिकारी और ऐसे कितने ही रूप में देखता है तो दूसरा खेमा इसी जनता को वोट बैंक के तोर पर. लेकिन दोनों खेमों का मुख्य घटक यानी जनता ठीक उसी बच्चे की तरह हो गई है जिसके असली मर्म को कोई नहीं समझ रहा है. अगर आप ये लेख पढ़ रहे है तो एक बार दिल पर हाथ रखकर कहिये कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए वाकई किसी लोकपाल की ज़रूरत है? यदि आपका जवाब हाँ है तो दूसरा जवाब यह भी दे दीजिये कि क्या आपने अब तक एक भी वोट इमानदारी से डाला है? क्या उस आदमी को दिया है जो वाकई आपके कीमती वोट के लायक है. या फिर वोट देते वक़्त आसपास के माहौल, परिवार में किसी खास पार्टी को वोट देने की प्रथा को आगे बढ़ाने का काम किया है. हो सकता है आप में से कई लोग मेरी बातों से सहमत ना हों लेकिन हकीक़त यही है की हमें सबसे पहले वोट देने के अधिकार का इमानदारी से उपयोग करना होगा. यदि आपने एक बार भी ऐसा कर लिए तो आपके द्वारा चुना गया नेता आपके लिए सही मायनों में जवाबदेह होगा.
भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए क्या हमारे पास अब तक क्या एक भी कानून नहीं है? लोकपाल ठीक उसी तरह होगा जैसे आपके सिलेबस में एक और मोटी किताब को जोड़ दिया जाना. या फिर शास्त्रीय संगीत में पारंगत हुए बिना साज सीखने की जिद जैसा. दो खेमों के अहम में पिसने की बजाय ये सोचना शुरू कर दो कि कल से आप ऑफिस जाते समय बस पकड़ने के लिए लाइन में खड़े रहेंगे. जो आपके आगे खड़ा है उसे खाली सीट पर पहले बैठने का मौका दें, नाकि खाली सीट पर झपट पड़े. जल्दी पहुचने के चक्कर में सिग्नल तोड़ना छोड़ दें. हम बदलेंगे सब बदलेगा. यदि आपने ऐसा किया तो आप खुद आपनी नज़र में अन्ना बन जाएंगे. अगर आप बिल्कुल ठीक ठाक है तो आपको किसी आंदोलन में जाकर, झंडे हाथ में लेकर इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाने की भी ज़रूरत नहीं. यदि आप सहमत नहीं है तो जो हो रहा है वो हो ही रहा है, बदलने की ज़रूरत कहां है.
जय हिंद

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