May 9, 2015

माँ

वो चिट्ठी शिकायत से शुरू होती थी
"तू कितना लापरवाह हो गया
ख़त का जवाब भी नहीं देता"

वो चिट्ठी चिंताओं से भरी होती थी
"गर्मी में बाहर मत निकलना
तुझे लू जल्दी लगती है"

वो चिट्ठी नसीहत से ख़त्म होती थी
"परीक्षाएं आ रही हैं, चिंता मत करना
खूब मन लगाकर पढ़ाई करना
बादाम भेज रही हूँ, थोड़ी खा लेना"

कागज़ के हर कोने में
नसीहतें लिखी होती थीं
हाशिए पर फ़िक्र के दस्तख़त थे

अब माँ के पास हूँ मैं
रात में देर से लौटता हूँ
तो कहने लगती है
"कितनी देर कर दी तूने
खाना ठंडा हो गया
गर्म कर दूं क्या"

©दामोदर व्यास

Apr 28, 2015

एक कवि की भूख

सुनो शेष
भूख लगने पर क्या करते हो तुम
उम्मीद से देखते हो बुक सेल्फ़ की ओर
स्कूल से घर लौटकर
कोई बच्चा
रसोई की ओर देखता हो जैसे

चल पड़ते होंगे ये सोचकर कि आज
कुछ लज़ीज़ रखा होगा भगोने में

या बचाकर भाभी की नज़रों से
चख लेते होंगे किताबों में छिपी
महबूब की पुरानी चिट्ठियां

या फिर मेज़ पर रखे
बासी दाल-चावल से अख़बार ठूंसते हो

भूख लगने पर क्या करते हो तुम

मीर की मिश्री चूस लेते हो
या फिर ग़ालिब का मुग़लई दीवान उठाते हो

मुझे तो भूख लगती है
तब मैं अक्सर
एक कहानी खाकर दो नज़्में पीकर सो जाता हूँ
मुझे कोलेस्ट्रोल फ्री कवितायें अच्छी लगती है।

-दामोदर व्यास
28 अप्रैल 2015

Apr 23, 2015

एक किसान की मौत और नेता

किसानों की मौत पर
एक नेता
भीतर तक टूट गया

"जिस देश में
पेड़ों से लटककर
मर जाए अन्नदाता
वहाँ
मैं नहीं जी सकता"

पैनल डिस्कशन के दौरान
नेताजी द्वारा कही गयी
इस बात को
गंभीरता से लिया गया

एक चैनल ने
पीपली लाइव के नत्था
और नेताजी को
साथ-साथ दिखाया

दूसरे को फ़िक्र थी
नेताजी ने क्या खाया

नेताजी के बयान ने
नेताओं की चिंता बढ़ा दी
सभी पार्टियों ने
प्रवक्ताओं की
लाइन लगा दी

पहला प्रवक्ता:
ये विषय गंभीर है, सभी दलों को एक होना पड़ेगा।

दूसरा प्रवक्ता:
नेताजी अत्यंत संवेदनशील हैं।
हम उनकी भावनाओं का आदर करते हैं।

तीसरा प्रवक्ता:
नेताजी स्पष्ट करें। आख़िरकार वे क्या करेंगे?

चौथा प्रवक्ता:
ये मीडिया अटेंशन लेने का एक तरीक़ा है। हम निंदा करते हैं।

इधर
नेताजी की bp low होने लगी
पार्टी का दबाव बढ़ने लगा

"आप या तो पार्टी छोड़ें या फिर जीना।"

एक नेता के लिए
पार्टी ही जीवन है
जिस तरह
किसान के लिए
उसका खेत

खैर किसान तो
नेताजी भी थे
उनके रिकार्ड्स में
लखनऊ, नोएडा
और हिसार वाली ज़मीन को
कृषि भूमी बताया गया था

नेताजी को
विचार कौंध रहे थे
शायद किसान के साथ भी
ऐसा होता होगा
मरने से पहले

पहला विचार-
कौन कहता है किसान को मरना चाहिए? मैं भी तो किसान हूँ और मैंने ऋण भी लिया है।

दूसरा विचार-
किसान को नेता बन जाना चाहिए। हमारे खेतों में फ़सलें बर्बाद नहीं होती हैं।

तीसरा विचार-
किसान खेती करता है फिर फ़सल बर्बाद होती है और फिर वो सुसाइड कर लेता है। जैसे लड़की छोटे कपड़े पहनती है फिर बाहर निकलती है और उसका रैप हो जाता है।

बहरहाल
नेताजी संवेदनशील थे
उन्होंने
किसी भी विचार पर
विचार नहीं किया
और
कहीं चल पड़े
चिंताओं का पहाड़ लेकर

चार दिन बीत गए
नेताजी की कोई ख़बर नहीं
युवराज के लिए चिंतित लोग
अब नेताजी को ढूंढने लगे

घरवाले खामोश थे
पार्टी अनजान थी
मीडिया परेशान थी

विपक्ष ने जांच की मांग की
पार्टी ने सभा रखी
और मीडिया ने समीक्षा...

नेताजी संवेदनशील थे
उन्हें
अपने बयान के बाद
ज़मीनें बेचनी पड़ी
विदेश में सेटल होने के लिए

ऐसी जगह
जहाँ कोई किसान
पेड़ों से लटककर
नहीं मरता

नेताजी एक किसान थे
और
भारत एक कृषिप्रधान देश...

-23 अप्रैल, 2015
©Damodar vyas

Apr 11, 2015

नया अंदाज़

हर रोज़ ढूंढते हैं कि क्या आज नया है
हर एक उनकी बात का अंदाज़ नया है

जाने क्यों उचटा है मन, अब देश राग से
बंशी की जगह बज रहा, कोई साज नया है

न जाने कब किधर से, वो वार करेगा
हर आदमी का तरीक़ा-ए-आगाज़ नया है

किरदार जल चुके हैं, कहानी के मेरे दोस्त
धुंए से जो है उठ रहा, वो राज़ नया है

वो चाहता है भूख का, शिकार बनो तुम
फ़िर झट से ले उड़ेगा, बाज़ नया है

शहरों में रहगुज़र की, तरक़ीब क्या है दोस्त
जहाँ झोपड़े थे पहले, वहां ताज नया है

उन प्यार भरी चिट्ठियों की ख़ुशबू थी अलग
मोबाइल पर ही मिलने का, अब अंदाज़ नया है

©दामोदर व्यास
11th April, 2015

Apr 10, 2015

जनतंत्र का हास

कहीं वाक्य का विन्यास है
कहीं झूठ का उल्लास है
कहा तुमने छाती ठोक के
कहाँ हो रहा वो विकास है

आडम्बरों की उपासना
जो भी मिले, सब फाँसना
धर्मों में अंतर बढ़ रहा
और मिट रहे इतिहास है

बड़ा स्नेह लेकर आये थे
बड़े सपने तुमने दिखाए थे
पर मंत्रियों के बोल से
हुआ देश का उपहास है

आचार बेचती बेटियां
सेठों की भरती पेटियां
वादों को झुमले बता दिया
तोड़ा यहाँ विश्वास है

कहीं थालियों में भूख है
कहीं हाथ में बंदूक है
यहाँ जेब कटती रोज़ है
क्या इसका भी आभास है

जन-धन का सच कुछ और है
कम काम है, बस शोर है
कचरे में बिखरी योजना
वाह! ख़ूब ये भी प्रयास है

है घर तुम्हारा विदेश में
टिकते नहीं तुम देश में
भाषण में कोरी चुटकियाँ
अभिव्यक्ति का अट्टहास है

जनतंत्र का आदर करो
जो वादे थे, पूरे करो
जनता ने तोड़ा तख़्त को
जब भी हुआ कोई हास है

-10 अप्रैल, 2015
दामोदर व्यास

Jan 15, 2015

बेटियाँ

बाबू मेला शोना-मोना
हाथ मिलाकर बात करो ना
जब से तुम हो रूठी-रूठी
रूठे बिस्तर, कमरा कोना

सांस फूला कर क्यों बैठी हो
चेहरा छुपाकर क्यों लेटी हो
गुस्सा होना ठीक नहीं है
मान भी जाओ छोना-छोना

आजा तेरे बाल बना दूं
चुटिया बड़ी कमाल बना दूं
झुमका, बिंदिया, लाली काजल
गोले-गोले गाल बना दूं

देखो काली हो गयी आँखें
तकिये से अब ताके-झांके
अच्छा! नाटक कर रही थी
पापा जी का बैंड बजा के

बिटिया हो गयी नौटंकीबाज़
माँ-बेटी का खुल गया राज

#damukipoem

-बेटियां ज़िंदगी हैं। save the girl child.

Jan 13, 2015

मकर संक्रांति

चल रे छोरे लूट ले मांझा
छत पे आये हीर और राँझा
बात-बात में पेच लड़ा है
पतंगों का ढेर पड़ा है

तपता सूरज आँख दिखाए
म्यूजिक और भी लाउड हो जाए
खाली फिरकी हाथ में लड्डू
चश्मा पहन के आया गुड्डू

अब्दुल मियां डोर बंधाये
सोणी शबनम थाप लगाये
हवा नहीं फिर भी कोशिश है
राहुल को ये कौन बताए

ढील देने से उड़ने लगेगी
डोर-डोर से जुड़ने लगेगी
अब्दुल चाचा ताक रहे थे
चार कबूतर झाँक रहे थे

थोड़ी देर मैं फंस गया मांझा
उंगली कटी तो दौड़ा राँझा
चुनरी लेकर हीर खड़ी थी
रांझे की तो निकल पड़ी थी

गली का बच्चा देख रहा था
कंकर पत्थर फ़ेंक रहा था
तार में उलझी सात पतंगे
"लूटने आ गए भूखे-नंगे"

नज़र बचाकर खूब उड़ाना
बच्चों का भी दिल बहलाना
जिनके पास नहीं है मांझा
उनकी फिरकी को भरवाना

तिल-गुड़ सी तुम करना बातें
दे देना कुछ आते-जाते
संक्रांति है बड़ा त्यौहार
अबकी बार, कुछ देना यार

#damukipoem

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