टेबल से अखबार उठाकर
चाय की चुस्की लेते-लेते
घंटों निकल जाते हैं...
कोई इंतज़ार नहीं बचा अब,
ना कपड़ों को इस्त्री,
ना जूतों को पॉलिश..
लगता हैं जैसे ज़िंदगी
एक लम्बे सफ़र के बाद
चैन से सोफे पर बैठ गई हों..
मगर
दफ़्तर के ठहाकों
और घर के सन्नाटों में
फ़र्क बहुत हैं..
ख़ामोशी कभी
भाई साहब
तो कभी
सर कहकर बुलाती हैं..
तन्हाई जूते पहनकर
टहलने निकल जाती हैं
क्या पता था
रिटायर्मेंट के बाद
ज़िंदगी बदल जाती हैं..
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